By राजेश कु मार राजन

इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी कोरोना ने मानवता को विनाश के दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस महामारी का दू सरा चरण अभी पूरी तरह खत्म भी नही हुआ है की इसकी तीसरी लहर के आने की चर्चा होने लगी है। इसके साथ नई नई चुनौतियाँ भी और मानवीय मूल्यों और करुणा का इम्तिहान भी हो रहा है। समाज-शास्त्र की मूल धारणा ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’ की भी अग्नि परीक्षा हो रही है कि हम में से कौन इस ‘सामाजिक’ टैग की सार्थकता को बनाये हुए है और कौन इसे मिटाने पर आमादा है। कु छ लोग अपनी जान को जोखिम में डाल बढ़ चढ़ कर लोगो की मदद करने के लिए आगे आ रहे हैं और दू सरी तरफ ऐसे भी किस्से सामने आ रहे हैं कि हम में से ही कई इस मौके का फायदा उठा जमाखोरी, कालाबाजारी, और तमाम अनैतिक हथकं डे अपनाने में लग गए हैं। इंसान और हैवान का फर्क मिटाने पर उतारू हैं। ऐसे में पंचतंत्र का एक संस्कृ त श्लोक बरबस ध्यान में आ जाता है: “यानि कानि च मित्राणि, कृतानि शतानि च। पश्य मूषकमित्रेण, कपोता: मुक्तबन्धना:॥” (मतलब लोगों को हमेशा ही सैकड़ों मित्र बनाना चाहिये। कै से एक छोटे से चूहे ने मित्र कबूतर के खातिर जाली काटकर उसे मुक्त कर दिया था ये कहानी हम सब को तो पता ही है)। सही भी है, मुसीबत में कौन कब किसके काम आ जाये किसे पता? पर मित्र बनाना आज कल के उपभोक्तावाद वाले युग के मतलबी लोगो के बीच आसान नही। और कै से बनाए जाए मित्र? किसी को मित्र बनाने से पहले स्वयं को उसका मित्र बनाना पड़ता है और किसी के मुसीबत के वक्त काम आकर स्वयं को मित्र होने की पात्रता और प्रासंगिकता साबित करनी पड़ती है; एक दू सरे के काम आना ही तो पारस्परिकता है। पारस्परिकता और सहयोग ही मानवता का सार भी है और प्रमाण भी। और इसी ने सृष्टि के प्रारंभ से अब तक मानवता के अस्तित्व को बचाये रखा है। इतिहास गवाह है जब जब हमारे अस्तित्व पर संकट मंडराया है हम मजबूती के साथ एक दू सरे का दामन थाम संकट से उबर कर आये हैं। तुलसी दास जी ने रामचरित मानस में ठीक ही लिखा है “परहित सरिस धरम नही भाई।” मतलब परहित ही मानवता का सबसे बड़ा धर्म है और यही वजह है कि मनुष्यता इस कलयुग में भी बची हुई है। कोरोना के हालात में सुधार दिखने लगा है। पर ये हमेशा के लिए गांठ बांध लें कि आने वाले 2 साल तक हमें सावधान की स्थिति में हमेशा रहना है और कोरोना के सारे प्रोटोकॉल का अक्षरशः पालन भी करना है। If winter comes, can spring be far behind!

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